आईने के सामने
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सियासत से नफरत, भले हो सभी को,
मगर हम सियासत, की ही बात करते हैं।
सजा के हैं काबिल, गुनहगार जो,
वही बेगुनाहों की, सजा माफ करते हैं।
न ईमान छोड़ा हो, जिसने कभी भी
वो ही खाक-ए-हस्ती पे, भी नाज करते हैं।
जिन्हें कठघरे में, खड़ा होना था,
ज़ुलम ये है कि,वो ही इंसाफ करते हैं।
मुखौटे हटाने के बदले में ‘जानी’
वो जब देखिये, आईने साफ करते हैं।
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