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बारूद के एक ढेर पे बैठी है जिंदगी

आईने के सामने
आईने के सामने
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बारूद के एक ढेर पे, बैठी है जिंदगी

हलचल हुई जरा सी, कि रूठेगी जिंदगी

है खौफ हर किसी को, कहीं बम ना फूट जाये

डर डर के हरेक पल को, जीती है जिंदगी

भूली ना मुंबई कि, दिल्ली दहल गयी

अब आगरा में भी तो, सहमी है जिंदगी

कितने अनाथ, विधवा, बनाएगा ये जुनून

लाशों के इतने ढेर, लगाती दरिंदगी

बातों के सिवा कुछ नहीं, हम कर रहे ‘जानी’

बेखौफ होके, क्या कभी, घूमेगी जिंदगी

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