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सड़कें बेदम ! खेलो फार्मूला वन !

आईने के सामने
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सड़क और साहित्य का बहुत गहरा नाता है। साहित्यकार प्राय: सड़कों पर पाया जाता है। कभी कभी सड़कछाप साहित्यकार, जमकर कमाता है। जबकि मूर्धन्य साहित्यकार सड़क पर आ जाता है। कभी कहा जाता था की साहित्य समाज का दर्पण है। लेकिन आजकल का साहित्य, सड़कों को अर्पण है। पुराने साहित्यकार, सुंदर नारी, नायिका के नख-शिख वर्णन में दिन रात एक किए रहते थे। आजकल के साहित्यकार, सड़कों की तुलना रूपवती नायिका के गालों से करते हैं। वैसे आजकल की सड़कों और नायिकाओं में बहुत सी समानताएं पायी जाती हैं।

सड़कों और नायिकाओं दोनों को सही सलामत (सुंदर) दिखने के लिए मेंटीनेंस की बहुत जरूरत होती है। पुरानी होने (रख रखाव ना होने).पर, दोनों में जगह जगह गड्ढे दिखने लगते हैं। आदमी रूपवती नायिका को देखकर, उस पर मुग्ध हो, आगे जाना भूल जाता है। उसी तरह आजकल सड़कों की हालत देखकर आगे जाने की हिम्मत नहीं कर पाता। लोग सजी-धजी नायिकाओं की सुंदरता पर जान देते हैं, तो आजकल विभिन्न प्रकार के गड्ढों से सजी सड़के, अपनेआप ही लोगों की जानें ले रही हैं। जिस तरह कभी नायिका के लिए कहा गया था कि –‘सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है। कि नारी है कि सारी है, कि सारी है कि नारी है।’उसी तरह आज का साहित्यकार सड़कों और उनके गड्ढों पर कहता है कि-‘सड़कों बीच गड्ढे हैं, कि गड्ढों बीच सड़कें हैं। कि सड़कें हैं कि गड्ढे हैं, कि गड्ढे हैं कि सड़कें?’

वैसे नायिकाओं और सड़कों में, कुछ असमानताएं भी होती हैं। अगर किसी नायिका को कुछ हो जाये, तो सभी लोग उसकी सहायता को दौड़ते हैं। लेकिन अगर सड़कों को कुछ हो जाए (टूट-फूट) तो सभी लोग उससे अपना पल्ला झाड लेते हैं। उसे ठीक करने कि ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं। नगर पालिका, विधायकों पर।  विधायक, सांसदों पर। सांसद, ब्लाक प्रमुखों पर। ब्लाक प्रमुख, प्रधानों पर। लेकिन ठीक कोई नहीं करवाता। दूसरी और प्रमुख असमानता यह है कि नायिका कि कमर जितनी अधिक पतली हो, वह उतनी ही सुंदर मानी जाती है। जबकि सड़कें, जितनी अधिक चौड़ी हों, उतनी ही अधिक सुंदर लगती हैं।

अब नायिका को छोड़ते हैं, केवल सड़कछाप साहित्य यानि केवल सड़कों कि बात करते हैं। सड़कों का साहित्य में बहुत महत्व रहा है। तभी तो, सड़कछाप होना, सड़क पर आना, सड़कों कि खाक छानना आदि मुहावरे हमारे साहित्य में खूब प्रचलित हैं।

सड़कें अब केवल सड़कें नहीं हैं। स्टेटस सिंबल हो गयी हैं। कुछ सड़कें तो चीन कि दीवार और ताजमहल से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी हैं। जैसे- राजपथ। दस जनपथ। सेवेन रेसकोर्स रोड। दस जनपथ पर चलने वाला अपने को राजपथ पर चलने वाले से ऊपर समझता है। राजपथ पर चलने वाला अपने को सेवेन रेसकोर्स रोड पर चलने वाले से उच्च समझता है। सेवेन रेसकोर्स रोड पर चलने वाला देश कि जनता को सड़क-छाप समझता है। आठ लेंन पर चलने वाला, पगडंडी पर चलने वाले को बड़ी हीन भावना से देखता है। बड़ी चौड़ी सड़कें, संपन्नता कि निशानी हैं।

सड़कें अब सड़कें नहीं रह गयी हैं। माडर्न हो गयी हैं। उनका काम के साथ-साथ नाम भी बदल रहा है। अब सड़कें माडर्न होकर ‘ट्रैक’ हो गयी हैं। जिन पर अमीर आदमी अपनी अमीरी दिखाता है। हमारी सरकारें साठ साल में देश की गरीबी और अशिक्षा नहीं मिटा पायीं, लेकिन सड़कों ने दोनों को मिटा दिया। देश में अब ‘फार्मूला-वन’ रेस हो चुकी है। जिसके लिए ट्रैक भी बने हैं। हमारा स्तर उठाने के लिए ‘जी-वन’ और ‘रा-वन’ से आगे निकलकर ‘फार्मूला-वन’ तक सड़कों ने ही पहुंचाया। अब हम सीना ठोंककर अमेरिका और इंगलैंड को अपनी अमीरी दिखा सकते हैं। जिस रेस को देखने के लिए दर्शक अपने प्राइवेट विमानों से आयें, जिसका टिकट बीस-बीस हजार से भी ज्यादा का हो, उसे करने और कराने वाला देश अब गरीब नहीं रह गया है।

हमारे देश के लोग बड़े जाहिल हैं। कहते हैं की ‘फार्मूला-वन’ करवाकर देश का पैसा बरबाद किया। अब जिसने साइकिल रेस से आगे कुछ देखी ना हो, वो भी धीमी गति की। उसे क्या पता ‘फार्मूला-वन’ रेस के 300 किमी प्रति घंटे की रफ्तार। जिस देश के लोग गड्ढा युक्त सड़कों पर 30 किमी प्रति घंटे की स्पीड भी नहीं चल पाते, आखिर वो तो जलेंगे ही। ‘फार्मूला-वन’ करवाकर देश अमीरों की श्रेणी में पहुँच गया है। अब देश अमीर हो गया है, तो देशवासी भी अमीर हो ही जाएँगे। जैसे नीरो ने कहा था कि- रोटी नहीं तो ब्रेड खाओ। वैसे ही हमारे अन्नदाता कहते हैं कि- सड़कें हैं बेदम। तो खेलो फार्मूला वन!

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