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कितना प्रासंगिक है राजनीति में जातिवाद? – Jagran Junction Forum

आईने के सामने
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इस बार के चुनाव में जातिवाद एक बहुत ही बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। सभी पार्टियां प्रत्याशियों को जाति के आधार पर ही टिकट दे रही हैं, और इस पर बहुत हाय-तौबा मच रही है। लगता है जैसे इस देश में राजनेताओं ने जातियाँ पैदा की हैं। कुछ लोग कह रहे हैं की पहले अंग्रेजों ने बांटो और राज करो की नीति अपनायी, अब नेता जाति को बढ़ाकर बांटो और राज करो की नीति अपना रहे है। लेकिन क्या जातियाँ अंग्रेजों के जाने के बाद बनीं हैं या सैकड़ों साल पूर्व मनुस्मृति जैसी धार्मिक ग्रन्थों की आड़ में किसी जाति विशेष को फायदा पहुँचाने की नीयत से बनाई गयी थी। हम धर्म की गहराई में ना जाकर, यह देखते हैं की क्या राजनैतिक दल सामाजिक समानता और समरसता में वृद्धि के लिए टिकट बंटवारे के समय जातीय गणित का ध्यान रखते हैं?

किसी जाति विशेष को टिकट देने से सामाजिक समरसता या सामाजिक समानता कभी नहीं आ सकती। यहाँ तक की राजनीति से सामाजिक समानता या समरसता आ ही नहीं सकती। क्योंकि सामाजिक असमानता धर्म के माध्यम से हमारे मन-मस्तिष्क में गहरे तक बैठाई गयी है, इसलिए यह अगर खत्म हो सकती है तो सिर्फ धर्म के द्वारा या सामाजिक आंदोलनों से जिसमें धर्म गुरुओं की अगुवाई आवश्यक है। बिना इसके सामाजिक समानता कभी नहीं लायी जा सकती है।

राजनीति में जातीय आधार पर फैसले लेने से आर्थिक असमानता की खाई जरुर पाटी जा सकती है। लेकिन यह भी उतना ही सही है की इससे सामाजिक असमानता की खाई नहीं पट सकती। सामाजिक असमानता क्योंकि हमारे रग रग में है, इसलिए इसके बढ़ने की बात करना बेकार है। अगर आज भी एक हाईकोर्ट के जज स्तर के अधिकारी के साथ जातीय भेदभाव हो रहा है, तो यह कहना कि, राजनीति में जातीय आधार पर फैसले लेने से असमानता की खाई बढ़ेगी कोई अर्थ नहीं रखती। क्योकि वह तो पहले से ही बहुत है। जबतक तथाकथित उच्च जाति को फायदा होता है, कोई इस मुद्दे को नहीं उठाता। जैसे ही निम्न जाति के फायदे कि जरा सी भी बात (चाहे वह जाति के नाम पर ही क्यो ना मिले)  आती है, सबको असमानता कि खाई बढ़ती हुई दिखने लगती है। अगर पहले ही असमानता कि खाई बहुत नहीं होती, तो दलितों को आज भी मंदिर तक में घुसने के लिए संघर्ष ना करना पड़ता। या आनर किलिंग के नाम पर बेगुनाहों का कत्ल ना होता, और ना ही समाज में स्वीकार्य होता।

बार बार जो बात इस चुनावी परिपेक्ष्य में उठायी जाति है, वह है कि क्या जातीय आधार पर टिकट वितरण से अयोग्य लोगों के चुने जाने की संभावना बढ़ जाती है? यह बहुत ही हास्यास्पद प्रश्न है। क्या जाति ही योग्यता का पैमाना है? जब भी जाति के नाम पर निम्न लोगों को कोई सहायता या फायदा दिया जाता है तो योग्यता का सवाल जरूर उठता है। अगर जाति ही योग्यता कि कसौटी है, तो क्या इस समय आस्ट्रेलिया में खेलने गयी भारतीय क्रिकेट टीम के सभी खिलाड़ी दलित या अछूत जाति हैं, जो इतनी बुरी तरह हारे? या सभी आस्ट्रेलिया और इंगलैंड के खिलाड़ी सवर्ण जाति के है? यह एक हकीकत है कि जाति के नाम पर दलितों और अछूतों में हीनभावना मनुस्मृति काल से ही धर्म द्वारा भर दी गयी है। और आज तक यही हो रहा है कि जाति के नाम पर योग्यता /  अयोग्यता कि बात की जा रही है। यही इस बात का द्योतक है कि जातीय ग्रंथियां कितनी गहरी हैं।

जहां तह राजनीति में जातिवाद की प्रासंगिकता की बात है, तो राजनीतिक भी इसी समाज का ही भाग हैं। राजनीति में उन बातों का आना स्वाभाविक है, जो समाज में मौजूद हैं। आज जातीय मानसिकता समाज में मौजूद है, तो इसका असर राजनीति में कैसे नहीं पड़ेगा। अगर पेट्रोल पंप घोटाला, ताबूत आदि घोटालों के बावजूद अटल बिहारी, और टू जी, कामनवेल्थ जैसे घोटालों के बावजूद मनमोहन सिंह और शीला दीक्षित ईमानदार हैं, तो मंत्रियों द्वारा किए गए वैसे ही घोटालों के लिए मायावती कैसे भ्रष्ट हो गयी? सिर्फ इसलिए की वो निम्न जाति से हैं। इससे ही यह दिखता है की जातिवाद हमारे समाज में कितना गहरा है। फिर राजनीति में उसका परिलक्षित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यह प्रासंगिक भी है।

जहां तक इससे देश में विभेदकारी परिस्थितियां जन्म लेने की बात है, तो यह निरा हौव्वा बनाने की बात है। जबकि इसके उलट है। जब निम्न जतियों को भी मौका मिलेगा तो उससे उसका आर्थिक स्तर तो जरूर सुधरेगा, जिससे कम से कम आर्थिक समानता तो समाज में आएगी ही। अगर जातियों से विभेदकारी स्थिति उत्पन्न होती, तो देश अबतक हजारों भागों में बंट चुका होता, क्योंकि यहां हजारों जातियाँ देश स्वतंत्र होने के बाद से ही हैं। कुल मिलाकर ये सारे मुद्दे सिर्फ इसी बात के लिए उठाए जा रहे हैं आखिर निम्न वर्ग को भी टिकट क्यों दिया जा रहा है।

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